उत्तराखंड के प्रसिद्ध Rope Way

एक शहर को देखने के कई विकल्प होते है आप कार, बाइक, या फिर महंगे हवाई सफ़र से एक शहर को देख सकते है या फिर आप एक सस्ते और आरामदायक उड़न खटोले Rope Way की सहायता से भी देख सकते है| Rope Way अधिकतर किसी धार्मिक या प्राकृतिक या बर्फ से ढके पर्वर्तीय स्थल में बने हुए है जहाँ से आप प्राकृतिक द्रश्य का आनंद ले सकते है|



     उत्तराखंड धार्मिक यात्रा के लिए तो विश्व विख्यात है लेकिन यहाँ पर कई रोमांचक पर्यटन स्थल भी है जैसे की गंगा में होने वाले नोकायन White Water River Rafting , Bungee Jumping, Flying Fox, Trekking Tour, Snow Skiing, Mountaineering, आदि

     उत्तराखंड में कई स्थान पर पर्यटकों की सुविधा के लिए सरकार वा निजी उपकर्म के Rope Way है जिनमे हरिद्धार का माँ चंडी देवी तथा मनसा देवी, नैनीताल, मंसूरी, तथा जोशीमठ से औली का Rope Way अपनी एक विशेष पहचान रखते हुए विश्व प्रसिद्ध है| उत्तराखंड में हेमकुंड-घांघरिया, केदारनाथ, कुंजापुरी-ऋषिकेश जैसे स्थलों में भी Rope Way निर्माण की योजनाओं के बारे में सरकार विचार कर रही है|

    हरिद्धार में माँ मनसा देवी, माँ चंडी देवी में Rope Way की सुविधा है तो जोशीमठ से औली तक जाने वाले Rope Way की यात्रा जीवन के अविस्मरणीय क्षणों में से एक होती है| माँ मनसा देवी, माँ चंडी देवी और माँ माया देवी के मंदिर हरिद्धार में एक त्रिकोण बनते है| हरिद्धार के शक्ति पीठ त्रिकोण के मध्य माँ गंगा के आने से यह त्रिकोण अधिक शक्तिशाली हो जाता है| माँ मायादेवी हरिद्धार की अराध्य देवी है तथा आनंद भैरव को हरिद्धार का रक्षक माना जाता है|

    हरिद्धार में माँ चंडी देवी तथा माँ मनसा देवी धाम में Rope Way सेवा का सञ्चालन संयुक्त रूप से उषा ब्रेक्रो करती है, साथ ही यह दोनों धामों के मध्य सशुल्क बस सेवा का कार्य भी करती है|




     माँ मनसा देवी Rope Way 




माँ मनसा देवी 
       हरिद्धार में स्थित माँ मनसा देवी मंदिर एक प्राचीन मंदिर है, माँ मनसा को नागो की देवी के रूप में जाना जाता है| पुराणों के अनुसार माँ मनसा देवी को देव आदि देव महादेव के मानस पुत्री बताया गया है, मस्तक से उत्पन्न होने के कारन इन्हें मनसा कहा जाता है| वासुकी नाग द्धारा महादेव से बहन की मांग करने के कारण माता मनसा का जन्म हुआ| वासुकी नाग मनसा के तेज को सहन ना कर सकें तो उन्होंने मनसा माता का पालन करने हेतु तपस्वी हलाहल को पाताल लोक से बुलाया माता मनसा का पालन और रक्षा करते हुए तपस्वी हलाहल ने अपने प्राणों का त्याग कर दिया| कुछ पुरातन ग्रंथो में माता मनसा की उत्त्पति को महर्षि कश्यप के मस्तक से भी बताया जाता है| माता मनसा को प्राचीन यूनान में भी एक पूजनीय देवी माना जाता था| 

     माता मनसा का नाग कन्या तथा पाताल कन्या होने के कारण इनका पूजन प्रारम्भिक काल में दत्यों तथा वनवासियों तक ही सिमित था लेकिन धीरे धीरे माँ मनसा की महिमा से हिन्दुओं के सभी वर्ण परिचित होते गए और माँ मनसा की पूजा भव्य मंदिरों में परम्परागत ब्राहमणों द्धारा की जाने लगी|  बंगाल में शैव माँ मनसा को विष की देवी मानते है| 

विष्णु पुराण के चतुर्थ भाग में एक नाग कन्या का उल्लेख है जो बाद में मनसा नाम से प्रचालित हुई|

महाभारत में दो स्थानों पर माँ मनसा का उल्लेख मिलाता है युधिष्ठिर ने महाभारत के युद्ध से पूर्व माँ मनसा की विशेष पूजा की थी जिसके आशीष के फलस्वरूप पांडव विजयी हुए| युधिष्ठिर ने सालवन गाँव मन माँ मनसा की पूजा की थी जहाँ आज एक भव्य मंदिर बना हुआ है|

महाभारत के युद्ध के पश्च्यात पांडवो ने युद्ध में मारे गए अपने कुल तथा ब्राहमण हत्या के पाप के लिए वन को प्रस्थान किया और राजपाठ अभिमन्यु के पुत्र राजा परीक्षित को सोंप दिया, राजा परीक्षित की मृत्यु तक्षक नाग के कटाने से हुयी तब राजा परीक्षित के पुत्र जन्मेजय ने अपने छ भाईयों सहित नागो से प्रतिशोध लेने हेतु नाग जाति के सर्वनाश के लिए सर्पेष्ठी यज्ञ किया जिससे नाग लोक में हाहाकार मच गया| तब वासुकी ने अपनी बहन मनसा का विवाह जगत्कारु से करवाया जिनसे आस्तिक का जन्म हुआ आस्तिक ने सभी नाग जाति का संरक्षण किया|

      माँ मनसा के सात नामों के जाप से सर्प का भय नहीं रहता। ये नाम इस प्रकार है जरत्कारू, जगतगौरी, मनसा, सियोगिनी, वैष्णवी, नागभगिनी, शैवी, नागेश्वरी, जगतकारुप्रिया, आस्तिकमाता और विषहरी।

  माँ मनसा का रूप सोम्य है माँ का आसन सर्पो से आच्छान्दित कमल पर है माँ के चारो और सात सर्प विराजमान है| माँ की गोद में एक बालक को भी प्रतिमा में दिखाया जाता है जो माँ मनसा के पुत्र आस्तिक जी है|



      माँ मनसा के कई मंदिर भारत में है लेकिन हरिद्धार के अतिरिक्त चंडीगढ़ के पंचकुला में वर्ष 1811-1815 में महाराजा गोला सिंह द्धारा 100 एकड़ में बनवाया गया भव्य मंदिर विश्व प्रसिद्ध है| यहाँ नवरात्री में भव्य मेले का आयोजन होता है जिसमे विश्व भर से माँ के भक्त एकत्रित होकर माँ के गुणगान करते है|

       हरिद्धार में आने वाले करोडो श्रद्धालुओं की सुविधा को ध्यान में रखते हुए वर्ष 1981 उषा ब्रेक्रो लिमिटेड www.ushabreco.com हरिद्धार के प्रसिद्ध माँ मनसा देवी धाम में Rope Way का सुभारम्भ किया|

       माता के इस धाम में जाने के लिए पूर्व में दो मार्ग थे 3.5 Kmi की दुरी वाला पैदल मार्ग और दूसरा लगभग 670 सीडीयों वाला मार्ग| इन मार्गो से बुजुर्ग तथा भरी शरीर वाले श्रद्धालुओं को माता के धाम में जाने में कठिनाई होती थी जो Rope Way बनने के बाद एक आरामदायक यात्रा बन गयी|



      आज माँ मनसा देवी Rope Way एक अति व्यस्त संसथान है शारीरिक रूप से सक्षम श्रद्धालु पैदल मार्ग से शीघ्र माता के दर्शन करके लौट आते है लेकिन Rope Way की लम्बी पंक्ति में फंसे श्रधालुओं को माता के भवन तक पहुचने में ही घंटो लग जाते है|

     माँ मनसा धाम समुन्द्रतल से 178 मीटर (540 फीट) की ऊँचाई पर स्थित है तथा माँ के धाम तक पहुचने के लिए Rope Way की कुल लम्बाई 540 मीटर (1,770 फीट) है|



चंडी देवी Rope Way 



      चंडी देवी Rope Way का सञ्चालन माँ मनसा देवी Rope Way के साथ सयुक्त रूप से उषा ब्रेको ही करती करती है| उषा ब्रेक्रो द्धारा चंडी देवी Rope Way का निर्माण 5 फरवरी 1997 को कर श्रद्धालुओं के लिए खोल दिया गया| Rope Way के माध्यम से श्रद्धालुओं को 2,900 मीटर (9,500 फीट) ऊपर माँ चंडी देवी भवन के निकट ले जाने के लिए कुल 740 मीटर (2,430 फीट) लम्बे और 208 मीटर (682 फीट) ऊँचे टावर का प्रयोग होता है| राजा जी रास्ट्रीय उद्धयान से गुजरते इस Rope Way में कभी कभी वन्य जीवो के दर्शन पा कर श्रद्धालु रोमांचित हो जाते है| हिरन, हाथी और लेपर्ड यहाँ यदा कदा दिख जाते है|

माँ चंडी देवी कथा महातम                                                        


       माँ भगवती के प्रंचड स्वरुप को चंडी कहा जाता है| प्राचीन ग्रन्थ पुराणों के अनुसार एक समय शुम्भ और निशुम्भ ने देवताओं से विभिन्न प्रकार के वरदान मांग कर धरती के सभी राजाओं को युद्ध में पराजित कर दिया अत्यंत शक्तिशाली होने से इनका मनोबल इतना उग्र हो गया की इन्होने देवलोक में आक्रमण कर देवताओ को भी पराजित कर दिया तथा स्वर्ग के राजा इंद्र को स्वर्गलोक से निकाल दिया| सभी देवताओं ने त्रिदेवो से सहायता मांगीं तो पता चला की शुम्भ और निशुम्भ का वध कोई भी पुरुष नही कर सकता इन दोनों का वध मात्र नारी ही कर सकती है तो देवताओं ने जाकर महामायी जगदम्बा से प्रार्थना की| माता ने देवताओ की करुण पुकार को सुनते हुए उन्हें शुम्भ निशुम्भ के अत्याचारों से मुक्ति दिलवाने का आशीष दिया|

    माँ ने एक धरती पर एक स्थान पर अपना निवास बनाया और मानवों की सेवा करने लगी| माँ के स्वरुप से अनभिज्ञ दैत्य अनुचरो ने माँ के अद्भुत स्वरुप के शुम्भ निशुम्भ को कहा तो दैत्यराज माँ के स्वरुप पर मोहित हो गेये उन्होंने माँ को ही विवाह का निवेदन भेज दिया जिसे माँ ने ठुकरा दिया|

   एक साधारण नारी  जानते हुए दैत्यराज शुम्भ निशुम्भ माँ के ठुकराए ज\जाने से क्रोधित हुए और उन्होंने अपने सबसे आधिक परकर्मी असुर चंड-मुड को माता का अपहरण कर उनके सामने लाने की आज्ञा दी| चंड-मुंड दोनों की बाते सुनकर माता भावनी को क्रोध आ गया जिससे चंडिका उत्पन हुई जिन्होंने पलभर में ही चंड-मुंड का वध कर दिया| चंड-मुड के वध का समाचार जानकर शुम्भ-निशुम्भ दोनों ने माता को युद्ध के लिए ललकारा माँ चामुंडा ने उन दोनों का वध कर दिया|

   पोराणिक मान्यताओं के अनुसार माता चण्डिका ने जिस स्थान पर इन दैत्यों का वध किया वो स्थान आज चंडी माता का मंदिर है यह मंदिर जिन पहाड़ियों में बना है उन्हें शुम्भ-निशुम्भ कहा जाता है तथा माता की प्रतिमा जहाँ पर स्थित है उसके बारे में कहा जाता है की माता चण्डिका ने इन दैत्यों को वध कर इस स्थान पर कुछ देर बैठ कर विश्राम किया था|

    मंदिर में माता चण्डिका की प्रतिमा को प्रथम बार आदि शंकराचार्य जी ने 2,500 वर्ष पूर्व स्थापित किया था| वर्तमान मंदिर का निर्माण वर्ष 1929 में कश्मीर के महाराजा श्री सुचात सिंह जी ने करवाया था| मंदिर की व्यवस्था मंदिर के महंत देखते है|


    माँ चंडी देवी मंदिर में वर्षभर भक्तो श्रद्धालु बड़ी संख्या में आते रहते है लेकिन नवरात्री तथा चंडी चौदस में माँ के दरवार में अंसख्य श्रद्धालु विशेष रूप से माता के दर्शन करने आते है|

   माँ चण्डिका/चंडी के धाम तक पहुचने के लिए तीन मुख्य मार्ग है| हरिद्धार नगर के दक्षिण दिशा में हरिद्धार-चीला (राजाजी राष्ट्रीय प्राणी उद्धायान) से माता के धाम तक जाने का प्राचीन पैदल मार्ग है जो लगभग 3 किमी लम्बा है तथा यहाँ तक जाने के लिए उत्तराखंड के 1.5 किमी सबसे लम्बे पुल में से होकर जाना पड़ता है| माता के धाम के आरंभ में ही माँ दक्षिणेश्वरी कालिंका (काली माता) का प्राचीन मंदिर है|



  दूसरा पैदल मार्ग सीडियों वाला जो हरिद्धार-नजीमाबाद राजमार्ग में चंडी देवी सेतु से 500 मीटर आगे है|

  तीसरा मार्ग माँ चंडी देवी उड़न खटोला है यहाँ से तीर्थयात्री Rope Way के माध्यम से माँ चंडी देवी के मंदिर तक पहुच सकते है|

   माँ चण्डिका धाम के सामने की पहाड़ी में भगवान् हनुमान जी की माता अंजना देवी जी का मंदिर है| माँ चंडी देवी के मंदिर नील पर्वत के पर है जहाँ से हरिद्धार का सुन्दर द्रश्य तथा माँ गंगा का विस्तृत क्षेत्र दिखता है तथा सामने के पर्वत से माँ मनसा के दर्शन भी होते है|

चंडी देवी उड़न खटोले के निकट ही दो प्राचीन मंदिर है, गौरीशंकर मंदिर तथा नीलेश्वर महादेव मंदिर .....

गौरीशंकर मंदिर के बारे में कहा जाता है की यहाँ भगवान् शिव की बारात ने सती तथा शिव के विवाह में जाते हुए विश्राम किया था| यहाँ एक शिलालेख है जिसमें लिखी भाषा को आज तक कोई नही पढ़ पाया|


नीलेश्वर महादेव मंदिर के बारे में कहा जाता है की यहाँ भगवन शिव ने प्रथम बार दक्ष के यज्ञ में प्राणाहुति देते माँ सती को देखा था जिसको देखर महादेव क्रोधित हुए और उन्होंने अपनी दो जटाओं को धरती पर पटाका जिससे महादेव के गण वीरभद्र प्रकट हुए और उन्होंने प्रजापति दक्ष के यज्ञ को भंग कर उसका शीश काट दिया|

महादेव के इस क्रोध से चंडी देवी पर्वत नीला हो गया जो नील पर्वत के नाम से विख्यात है तथा सामने बहती गंगा भी नीली पड़ गयी जीने आज भी नीलधारा कहकर बुलाया जाता है| तथा इस स्थान पर जो मंदिर बना वो नीलेश्वर महादेव मंदिर है|

मंसूरी Rope Way

पहाड़ो के रानी के नाम से प्रसिद्ध गढ़वाल के सबसे अधिक दर्शनीय पर्यटक स्थल मंसूरी के बारे में भला कौन है जो नही जनता होगा| मंसूरी एक पहाड़ो में बसा एक लम्बा घांस का मैदान हुआ करता था जहाँ स्थानीय नागरिक गर्मियों में अपने पशुओं को चराने के लिए लाते थे पशु चारागाह वाले इन मैदानों को गढ़वाली भाषा में बुग्याल कहा जाता है| "मंसूर" नामक पेड के अधिक संख्या में उगने के कारन इस स्थान को मंसूरी बुग्याल कहा जाता था जो आज मंसूरी के नाम से विखाय्त है| अंग्रेजो के बाद आज यह भारत के सबसे अधिक पसंद किये जाने वाले पर्यटन स्थलों में से एक है गर्मियों के छुटियों में यहाँ कभी कभी यात्रियों को होटल के कमरे ही नही मिलते जो मंसूरी की प्रसिद्धि को बताने के लिए काफी है|


शिवालिक पर्वतमाला में बसे मंसूरी की ऊँचाई समुन्द्रतल से 2,005 मीटर (6,660 फीट) है| लेंढोर, बर्लिगंज तथा झाड़ीपानी मंसूरी के ही अंग है| मंसूरी की शिवालिक पर्वतमाला से हिमालय के विशाल बर्फ से ढके पर्वत दिखाई देते है जो आने वाले शैलानियों के लिए एक स्मरणीय पल होते है| तो दूसरी शिवालिक पर्वतमाला तथा दूनघाटी के दर्शन होते है| बादलों से लिपटे पहाड़ एक अद्भुत द्रष्य का निर्माण करते है|

गढ़वाल राजवंश और नेपाल के गोरखाओं के मध्य चले लम्बे युद्ध में गढ़वाल के राजा सुरदर्शन शाह (पंवार) ने अंगेजो की सहायता से नेपाली गोरखाओं को वर्ष 1815 में पराजित कर दिया लेकिन युद्ध में व्यय राशी ना चुकाने के कारण अंगेजों ने महाराज सुरदर्शन से टिहरी राज्य को छोड़कर गढ़वाल के बाकि हिस्से को अपने कब्जे में ले लिया|

अंग्रेज दिल्ली की गर्मियों से बचने के लिए अक्सर पहाड़ों में घुमने आते, उनको देहरादून के निकट मंसूरी के वातावरण ने उनके घर सा ठंडा वातावरण दिया तो उन्होंने इसे अपनी सुविधानुसार बसना प्रारम्भ किया| सड़क मार्ग से मंसूरी को जोड़ा तथा रेल मार्ग से देहरादून को जोड़कर उन्होंने मंसूरी तक की यात्रा को सिमित समय में कर दिया| देहरादून के स्थानीय निवासी श्री शोर और ब्रिटिश सेना के कैप्टन यंग जोकि एक साहसिक पर्वतारोही भी थे ने वर्ष 1825 में मंसूरी के आरंभिक विकासकार्य में अतिविशेष सहयोग किया इनको मंसूरी की खोज करने वाला कहा जाता है| इनके प्रयास से ही अन्य ब्रिटिश अधिकारी व् भारतीय धनपतियों को अवकाश के लिए एक और स्थान मिला| लैंढोर में सैलानियों के लिए एक सेनिटोरियम बनाया गया तथा एक अन्य ब्रिटिश सेना अधिकारी सर्वेयर जरनल सर एवरेस्ट ने वर्ष 1822 में अपना घर मंसूरी में ही बनाया इन्ही के नाम पर विश्व की सबसे ऊँची हिमालय की चोटी सागरमाथा, नेपाल का नाम एवरेस्ट रखा गया|


वर्ष 1901में मंसूरी की कुल जनसंख्या 6461 थी जो अवकाशीय दिनों में 15 हजार से अधिक हो जाती थी| मंसूरी तक आने के लिए सहारनपुर सड़क मार्ग से आना होता था लेकिन वर्ष 1900 में यहाँ तक अंग्रेजो द्धारा देहरादून तक रेलगाड़ी आरंभ कर दी गयी जिससे मंसूरी में यात्रियों की भीड़ हर दिन बढ़ती चली गयी|

अंग्रजो ने देहरादून को सैनिक छावनी के रूप में विकसित किया जिससे देहरादून घाटी में शीघ्र ही सेना के अधिकारीयों के बड़े घर (बंगलो) बनाने लगे और इसका बड़ा प्रभाव मंसूरी में भी पड़ा अंग्रेजो ने मंसूरी में बाजार स्थापित किया जिससे मंसूरी के मुख्य मार्ग को माल रोड कहकर पुकारा जाना लगा|



वर्ष 2011 की जनगणना क अनुसार यहाँ की कुल जनसंख्या 30,118 थी जिसमें पुरुष 55.19% तथा स्त्रियों की संख्या 44.81% थी जिसमें 8.88% जनसँख्या 6 वर्ष से कम के बच्चो की है| मंसूरी की साक्षरता दर 89.68% है जोकि कुल राष्ट्रीय साक्षरता दर 72.69% से अधिक है|

मंसूरी के सबसे ऊँचे स्थान गनहिल तक जाने के लिए Rope Way का निर्माण किया गया| यह 400 मीटर लम्बी है जो 2024 मीटर ऊँचे स्थान गनहिल तक जाती है यहाँ से हिमालय के विशाल बर्फ से ढकी चोटियाँ दिखती है जिनमें नीलकंठ (बद्रीनाथ), मेंरू-सुमेरु, नंदा देवी, नंदा घुंघटी, चुखाम्बा, त्रिशूली, बन्दर पूंछ आदि दीखते है|




जोशीमठ औली Rope Way 

औली Rope Way भगवान् के पुत्र कार्तिकेय की राजधानी तथा हिन्दुओं के सबसे बड़े धर्म गुरु शंकराचार्य द्धारा स्थापित ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) में है| औली को औली बुग्याल भी कहा जाता है जिसका अर्थ होता है घांस का मैदान यहाँ स्थानीय निवासी बर्फ पिघलने के बाद अपने पशुओं को चराने के लिए लाते थे|



औली Rope way का निर्माण जब हुआ था तो यह एशिया में सबसे बड़ी Rope way सेवा थी अब गुलमर्ग, कश्मीर की Rope way के बाद यह दुसरे नंबर पर है| औली Rope way की कुल लम्बाई 4 Kmi. है| तथा समुन्द्रतल से इसकी ऊँचाई 1,890 Mtrs. जोशीमठ से आरंभ होकर 3,010 Mtrs. तक है|

औली Rope way के दो भाग  है पहले भाग में जोशीमठ से औली तक बड़ी Rope way है जिसमें एक साथ 10 व्यक्ति बैठ सकते है जबकि दूसरी Rope way औली के सबसे ऊँचे तथा Snow Sky के मैदान गंडोला तक जाती है इस Sky Rope way कहते है इसमें 4 व्यक्तियों के बैठने का स्थान होता है|

औली Rope way के आरंभ में चीड़ तथा जोशीमठ के सेब के बगान दीखते है और उसके बाद विशाल हिमालय के बर्फ से ढके शिखर दीखते है और नीचे गहरी खाई में मानव भी चींटियो की तरह दिखाई देते है वनों के मध्य पानी के ताल धरती में पड़े दर्पण की भांति चमकते हुए दिखाई देते है यह अनुभव शब्दों में उतरना कठिन है|

औली Rope way का निर्माण भारत के सबसे अधिक सफल प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने करवाया था| इस Rope way के निर्माण में विश्व के सबसे अधिक सुरक्षा प्रणाली तथा बिजली के लिए फ़्रांस से विशेष जनरेटर को मंगवा गया था| इन भारीभरकम उपकरणों तथा Rope way की रस्सी को लाने के लिए भारतीय सेना तथा कुशल ट्रक ड्राइवर को लगाया गया था क्यूंकि मार्ग में तब कई इसे पुल भी हुआ करते थे जो अधिक वजन के कारण टूट सकते थे इसके लिए भारतीय सेना को ट्रेफिक की  वयवस्था तथा ड्राइवर को निर्देशित करने का कार्य सोपा गया था| ट्रक दो भागो में विभाजित हो जाते थे पहले ट्रक का ड्राइवर वाला हिस्सा पुल पार करता था फिर पिछले हिस्से को क्रेन के द्धारा पुल से आगे खींचा जाता था|

दुर्गम स्थान पर Rope way के खम्बे लगने के लिए मजदूरो को भी विशेष तकनीकी अनुभव दिया गया था यह उस समय का सबसे बड़ा तथा कठिन कार्य था| औली Rope way में तूफान की जानकारी देने वाले सिस्टम को भी लगया गया है सुरक्षा के लिए मुख्य Rope way के साथ एक सुरक्षा तार को भी लगया गया है|

औली Rope way का प्रबंधन गढ़वाल विकास मंडल लिमिटेड के अधीन है यह उत्तराखंड पर्यटन विभाग का अंग है जो गढ़वाल चारधाम यात्रा के साथ साथ गढ़वाल के सभी प्रसिद्ध स्थानों में होटल आदि का प्रबंध भी देखता है|

वर्ष 2011 में औली तथा देहरादून में प्रथम दक्षिण एशिया शीत खेलो का सफल आयोजन किया गया| औली में रामायण काल से स्थित हनुमान जी का मंदिर संजीवनी शिखर में है| औली में बनी  एक झील भी बड़ी मनोहारी  है|


2017 में औली Rope way का किराया पति व्यक्ति 750 रूपये तथा Sky Rope way का किराया 300 रूपये प्रति व्यक्ति था| अधिक जानकारी के लिए गढ़वाल मंडल विकास निगम से सम्पर्क करें  तथा वर्तमान स्थिति को ज्ञात करें|

Dehradun(Head Office),
GM (Tourism), Garhwal Mandal Vikas Nigam Ltd.,
74/1, Rajpur Road, Dehradun-248001..


91-135-2740896 91-135-2746817
gmvn@gmvnl.com
http://www.gmvnl.com/newgmvn

Rishikesh
AGM (Tourism), Tourist Information Centre, Yatra Office,
Garhwal Mandal Vikas Nigam Ltd.,
Shail Vihar, Haridwar By Pass Road,
Rishikesh - 249201.


नैनीताल Rope Way 

   नैनीताल पर्वतो के मध्य बसा यह छोटा सा गाँव माँ नंदा देवी को समर्पित है आज बहुत ही कम यात्री माँ नंदा देवी के दर्शन के यहाँ आते है यह पूरी तरह से एक पर्यटन स्थल बन चूका है नैनीताल झील में नोकायन तथा माल रोड में घूमते फिरते यात्रियों को माँ नंदा देवी के मंदिर के दर्शन होते है| देखा जाए तो नैनीताल एक धार्मिक तथा मनोरंजन पर्यटन स्थल बनकर प्राचीनता और नवीनता को एक साथ आत्मसाध करता है यहाँ धर्म नए वातावरण के लिए बाधा उत्पन्न नही करता और नवीन वातावरण माँ नंदा देवी के प्रति स्वम ही श्रधा को जन्म देता है|


   कुछ ऐसा ही प्रकृति ने भी किया है मात्र 1,938 मीटर (6,358 फीट) की ऊँचाई  पर बसे नैनीताल में लगभग  3,000 मीटर पर होने वाली देवदार के वृक्ष किसी वरदान से कम नही है यहाँ का  वातावरण अपने आप में एक  सुखद अनुभूति करवाने वाला है|

    दिन में सूर्य  की प्रकाश और बदलो की लुकाछिपी तो रात्रि में नैनीताल झील में शहर  की लाइट का  प्रतिबिम्ब किसी और ही लोक का अनुभव करता है|

   धार्मिक मान्यताओ के अनुसार यहाँ माँ सती की आंख गिरने के कारण इसका नाम नैनीताल हुआ| नैनीताल चारो और से पर्वतो से घिरा हुआ है सबसे ऊँची चोटी का उत्तर दिशा में नैना है जिसकी ऊँचाई 2,615 मीटर (8,579फीट) है पश्चिम दिशा में देवपाठा 2,438 मीटर (7,999 फीट), दक्षिण में अयारपाठा 2,278 मीटर (7,474 फीट) यहाँ से पुरे क्षेत्र का मनोरम द्रश्य दीखते है|

Comments

Surjeet said…
आपके लेखों को पढ़कर बहुत मजा आता है, हमेशा ऐसे ही लिखते रहें। मेरा यह लेख भी पढ़ें मां कालिंका मंदिर

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