जलते जंगल को देखकर प्रकृति पुत्र उदासीन क्यों ?
जंगल आग और नागरिक उतरदायित्व जंगलो से मानव सभ्यता का सीधा संबंध रहा है। आज का विकसित, शिक्षित, आधुनिक, महानगरीय मानव स्वम् को कितना ही माना लें लेकिन यह सत्य है कि उसके पूर्वज कभी ना कभी वनों में ग्रामीण जीवन से निकलकर ही उन्हें आज की जीवन शैली तक पहुँचा सकें। गर्मियों के आरंभ में जंगलो में लगने वाली आग कोई नई घटना नही है यह घरती का प्राकृतिक नियम है। शरद, पतझड़, बसंत, ग्रीष्म, वर्षाकाल यह प्राकृतिक चक्र भी है नियम भी है। पुराने पते पेड़ो से झड़ चुके है और फैल गए है धरती में, ढेर के ढेर लगे है। नए पतो से वृक्ष जंगलो का श्रंगार कर रहें है। लेकिन सूखे पतो के नीचे छुपी धरती में समायी जड़ें इस श्रंगार का आनंद नही ले पा रही। जबकि प्रकृति मानव को अपने माध्यम से जन्म-मरण के इस खेल को समझा रही है। जंगली जानवर मस्त है और वो प्रकृति के अद्धभुत दृश्य में अठखेली कर रहें। छाया में पड़े पत्थर शीतल है जबकि धूप में पड़े गर्म है ओर दोनों सूखे पतो की भीड़ के पास ही है। अठखेली करते, भागते हुए जानवर के पैर से अचानक एक गर्म पत्थर उछलता