सिद्धपीठ माँ चन्द्रबदनी
धार्मिकता, अध्यातम, एवं सांस्कृतिक विरासत
के कारण विश्व में भारत का जो स्थान है वोही स्थान भरत के भीतर उत्तराखंड का है|
पवित्र हिमालय के शिखर, देवभूमि, देवताओं-ऋषियों की भूमि, हर-हरी का निवास, माँ
शक्ति का पैतृक निवास, परम-पवित्र गंगा-यमुना का जन्मस्थान यक्ष, किन्नर, अप्सरों
के आवास, तपोभूमि, जैसे कई नामो से शुशोभित उत्तराखंड सृष्टि के आरंभ से ही सनातन
हिन्दू धर्म, जैन, बौद्ध, सिख मत के लिए एक महत्वपूर्ण व धार्मिक स्थान है|
संस्कृति, सभ्यता, अध्यात्म को समेटे उत्तराखंड अपनी एक बड़ी विरासत लिए विश्वभर के
नागरिको के मध्य सदैव एक रहस्यमय, रोमाचक, उत्साहवर्धन की उर्जा को प्रसारित करता
रहा है| यहाँ के मंदिरों, मठो, आश्रमों में सदैव भक्ति की जो धारा प्रभावित होती
उसे देखकर नास्तिको के भीतर भी श्रद्दा स्वम् अंकुरित होती है| चन्द्रकुट पर्वत
टिहरी गढ़वाल में स्थित माँ चन्द्रबदनी का मंदिर दैवीय त्रिकोणीय मंदिर समहू (माँ
कुंजापुरी, माँ सुरकंडा) की ऊर्जा को समाहित करते हुए पवित्र 52 शक्तिपीठों
(सिद्धपीठ) में से एक है|
पौराणिक कथाओं के अनुसार माँ सती ने अपने
पिता प्रजापति दक्ष के यज्ञ समारोह में अपने पति महादेव शिव की उपेक्षा से दुखी
होकर यज्ञाग्नि में स्वम् को समर्पित कर
दिया जिसके उपरांत शिवगणों ने यज्ञ को भंग कर दिया और महादेव माता सती की पवित्र
देह को लेकर आकाश मार्ग में शोकाकुल विचरण करने लगे जिससे चराचर जगत स्तब्ध हो गया
तब देवता तथा ऋषिगण भगवान् विष्णु कि शरण में गए तो भगवान् विष्णु ने माँ सती की
पवित्र देह को सुरदर्शन चक्र से 52 खंडो में विभाजित किया| माँ के यह पवित्र अंग
जहाँ गिरे वहाँ एक शक्तिपीठ का निर्माण हुआ|
माँ सती के बदन का हिस्सा टिहरी गढ़वाल के
चंद्र्कुट पर्वत पर गिरा जो आज माँ चन्द्रबदनी के नाम से विख्यात है| कहते है कि
भगवान शिव के कंधे पर रखा माता सती के पवित्र शारीर का अंतिम हिस्सा उनका बदन ही
था इसके बाद शिव अपने यथार्त रूप में आ गए| यह कथा उस भाव को भी स्मरण करती है
जहाँ बताया गया है कि नारी के बिना पुरुष मात्र एक निर्जीव शारीर है जैसे कहा भी
जाता है शिव ही शक्ति है बिना शक्ति शिव भी शव है|
मंदिर के गर्भगृह में माँ स्वम् एक श्रीयंत्र के
रूप में विराजमान है उनकी कोई प्रतिमा यहाँ नही है| माँ के श्रीयंत्र को उनका
स्वरुप माना जाता है इसलिए उनको स्नान तथा श्रंगार करते समय यहाँ के पुजारी अपनी
आँखों में आज भी पट्टी बांध कर ही मंदिर के गर्भगृह में जाते है| लोकमान्यताओं के
अनुसार आज तक जिसने भी माता के गर्भगृह में जाने कि चेष्ठा की तो वो अँधा हो गया
है| कहा जाता है कि माँ भगवती अरोड़ा नमक स्थान के एक कुंद में आज भी नित्य स्नान
करने जाति है इस कुंद को देखने का भाग्य किसी विरले भक्त को ही मिलता| चोरखोली
नामक स्थान भी मंदिर में काफी विख्यात है|
शाक्त मंदिरों की भांति चन्द्रबदनी मंदिर में
पूर्वकाल में नर, पशुबलि भी दी जाति रही है लेकिन वर्ष 1997 में दक्षिण भारत से आये एक संत ब्रह्लीन
स्वामी मन्मथन ने कुछ समाजसेवियों की सहायता से चल रही पशुबलि को पूर्णतया बंद करवा
दिया| स्वामी मन्मथन ने अंजनीसैण में श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम की स्थापना की
जहाँ कई जनजागरण व सामाजिक कार्य होते है जिससे क्षेत्र कि जनता को काफी सहायता मिलती
है|
चैत्र तथा आश्विन में अब माता के मंदिर में सात्विक
विधि से पूजा-अर्चना कर श्रीफल (नारियल). कंद, छत्र, पुष्प, का प्रसाद चड़ाया जाता
है तथा नौ कन्याओं को विधिवत माता के स्वरुप में जिमाया जाता है|
मंदिर परिसर में भोगशाला, सतसंग भवन, पाठशाला,
भण्डारगृह, भोजनालय, सिंहद्धार, परिक्रमापथ दर्शनीय है| मंदिर के पुजारी निकट के
पूजार गाव के भट्ट है तथा सेमल्टी के लोग पाठार्थी के रूप में उनकी सहायता करते
है|
समुद्रतल से 8,000 फिट की ऊँचाई में माँ चन्द्रबदनी का यह मंदिर बांज,
बुरांस, काफल जैसे फलवृक्ष तथा देवदार. चीड़ और सुरई जैसे हिमालयी वृक्षों के मध्य
अनेक कन्दराओं को पार करते हुए चन्द्रकुट पर्वत के शिखर पर है यहाँ की जलवायु
स्वास्थयवर्धक है तो प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारते हुए जो आध्यात्मिकता व शांति
का अनुभव होता है उसे शब्दों में कहना संभव नही है|
माता के भवन से माँ कुंजापुरी, माँ सुरकंडा मंजिल देवता
के दर्शन होते है तो चौखम्बा, खैंट पर्वत शिखर, मंसूरी, टिहरी, आदि भी दिखाई पड़ते
है|
माँ चन्द्रबदनी मंदिर देवप्रयाग से मात्र 33 किमी
की दुरी पर है देवप्रयाग ऋषिकेश से 90 किमी की दुरी पर है| कांडीखाल से सिलौड होते
हुए 8 किमी के पैदल मार्ग के बाद माँ का भवन आता है| निकटवर्ती रेलवे स्टेशन ऋषिकेश
106 किमी तथा निकटवर्ती हवाईअड्डा जौलीग्रांट लगभग 138 किमी की दुरी पर है|
माँ सबकी
मनोकामना पूर्ण करें......
!!! जय माँ चन्द्रबदनी !!!
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