इस मंदिर में विश्राम करने आती है माँ महाकाली

दिव्य शक्तियों के प्रमाण मांगने वालो कि कमी नही जो अपन सिमित व भ्रमित ज्ञान के दम पर दिव्यशक्ति के अस्तित्व को नकारते रहते है लेकिन दिव्य शाक्ति द्धारा अपने जागृत अस्तित्व के प्रमाण हमारे मध्य ही मिल जाते है शक्ति के सबसे उच्च रूप में माँ भगवती के महाकाली रूप के दर्शन के प्रत्यक्ष प्रमाण देवभूमी उत्तराखंड के कुमायूं मंडल के गंगोली स्थित हाट काली मंदिर में मिलते है जहां आज भी माता रात्रिकालीन विश्राम करने आती है|
                                         

शास्त्रों के अनुसार कलयुग में तीन शक्तियों को जागृत शक्ति कहा गया है भगवान् हनुमान, भैरव व महाकाली...

सुरम्य घाटियों, हिमालय के क\उच्च शिखरों के मध्य बसी देवनागरी उत्तराखंड के महत्ता वेदों पुराणों में भरी पड़ी है| उत्तराखंड सदैव ऋषि-मुनियों और देवताओं कि भूमी रहा है| आज भी कई अनसुलझे हिमालयी प्रश्नों के साथ खड़ा उत्तराखंड वैज्ञानिको को सीधी चुनोती देती है| देवी-देवताओं के इस भूमी पर वैज्ञानिक भी स्वम् को अचरज कि स्थिति में पाते है|  आदि शक्ति महाकाली का यह मंदिर ऐतिहासिक, पौराणिक मान्यताओं सहित अद्भुत चमत्कारिक किवदंतियों व गाथाओं को अपने आप में समेटे हुये है।

सरयू एवं रामगंगा के मध्य गंगावली की सुनहरी घाटी में स्थित भगवती के इस आराध्य स्थल की बनावट त्रिभुजाकार बतायी जाती है और यही त्रिभुज तंत्र शास्त्र के अनुसार माता का साक्षात् यंत्र है।

विज्ञान से परे आज भी गंगोलीहाट का हाट काली मंदिर आस्तिक मानव मन को जहाँ शांति से भर देता है तो नास्तिको को आस्तिकता की और बढता है साथ ही वैज्ञनिको को अपनी खोजबीन जारी रखने को भी मजबूर करता है|

दिल्ली से लगभग 474 Kmi दूर उत्तराखंड के कुमायूं मंडल में बसा प्राकृतिक सौन्दर्य के भरपूर गंगोलीहाट के प्रसिद्ध हाट काली मंदिर मरण आज भी माँ महाकाली रात्रि को विश्राम करने आती है| मंदिर मरण रात्रि को महाआरती के बाद मंदिर में ही माँ का बिस्तर लगाकर उसमें पुष्प आदि चढ़ाएं जाते है और इसके बाद मंदिर के कपाट रात्री को बंद कर दिए जाते है जिन्हें अगली सुबह प्रातः काल 4:00 बजे ही खोला जाता है|

हर सुबह माँ रात्रिकालीन विश्राम को यहाँ आती है इसके साक्ष्य बिस्तर में पड़ी सलवटो तथा बिखर चुके पुष्पों के रूप में मिलते है| 

मंदिर के बारे में कई कथा प्रचलित है कहते है कि आदि गुरु शंकराचार्य ने इस मंदिर की स्थापना 2500 वर्षो पूर्व की थी| ( आदि गुरु शंकराचार्य का कालखंड अधिकाकांश 7 वी सदी पूर्व बताया जाता है जबकि कशी में स्थित धर्म सभा के कार्यालय के अनुसार आदिगुरू का जन्म लगभग 2500 वर्ष पूर्व हुआ था| आदिगुरु शंकराचार्य के उपरान्त ही शंकराचार्य मठो व अन्य आचार्यों को शंकराचार्य की उपाधी से सम्मानित किया जाता है| धर्म सभा के पास हर शंकारचार्य के पदासीन होने का समय कर्मबन्ध है जिसके अनुसार आदिगुरू शंकराचार्य का कालखंड 2500 वर्ष पूर्व बेठता है|


कहा जाता है कि, आदि जगत गुरू शंकराचार्य जब अपने भारत भ्रमण तथा अवैदिक मत खंडन यात्रा के दौरान जागेश्वर आये तो शिव प्रेरणा से उनके मन में माँ काली के इस धाम में आने की इच्छा जागृत हुई। लेकिन जब वे यहां पहुंचे तो नरबलि की बात सुनकर उद्वेलित शंकराचार्य ने इस दैवीय स्थल की सत्ता को अस्वीकार कर दिया और शक्ति के दर्शन करने से भी वे विमुख हो गये।


विश्राम के उपरान्त शंकराचार्य ने देवी जगदम्बा की माया से मोहित होकर मंदिर शक्ति परिसर में जाने की इच्छा प्रकट की तो मंदिर शक्ति स्थल पर पहुंचने से ही कुछ दूर पूर्व तक ही स्थित प्राकृतिक रूप से निर्मित गणेश मूर्ति से आगे वे नहीं बढ़ पाये और अचेत होकर इस स्थान पर गिर पड़े व कई दिनों तक यही पड़े रहे उनकी आवाज भी अब बंद हो चुकी थी। अपने अंहभाव व कटु वचन के लिये जगत गुरू शंकराचार्य को अब अत्यधिक पश्चाताप हो रहा था। पश्चाताप प्रकट करने व अन्तर्मन से माता से क्षमा याचना के पश्चात मां भगवती की अलौकिक आभा का उन्हें आभास हुआ।

चेतन अवस्था में लौटने पर उन्होंने महाकाली से वरदान स्वरूप मंत्र शक्ति व योगसाधना के बल पर शक्ति के दर्शन किये और महाकाली के रौद्रमय रूप को शांत किया तथा मंत्रोचार के द्वारा लोहे के सात बड़े-बड़े भदेलों से शक्ति को कीलनं कर प्रतिष्ठिापित किया। अष्टदल व कमल से मढवायी गयी इस शक्ति की ही पूजा अर्चना वर्तमान समय में यहां पर होती है।

महाकालिका की अलौकिक महिमा के पास आकर ही जगतगुरू शंकराचार्य ने स्वयं को धन्य माना तथा मां के प्रति अपनी आस्था पुंज बिखेरते हुये उत्तराखण्ड क्षेत्र में अनेक धर्म स्थलों पर श्रद्वा के पुष्प अर्पित किये जिनके प्रतीत चिन्ह आज भी जागेश्वर के मृत्युंजय महादेव मंदिर, पाताल भुवनेश्वर की रौद्र शक्ति पर व कालिका मंदिर के अलावा अन्य कई पौराणिक मंदिरों एवं गुफाओं में देखे जा सकते है। पौराणिक काल में प्रचलित नरबली के स्थान पर पशु बली की प्रथा आज भी प्रचलित है।

एक अन्य जनश्रुति के अनुसार, महिषासुर व चण्डमुण्ड सहित भयंकर शुम्भ निशुम्भ आदि दत्यों का वध करने के बाद भी महाकाली का यह रौद्र रूप शांत नहीं हुआ और इस रूप ने महाविकराल धधकती महाभयानक ज्वाला का रूप धारण कर तांडव मचा दिया था। महाकाली ने महाकाल का भयंकर रूप धरण कर देवदार के वृक्ष में चढ़कर जग्गनाथ व भुवनेश्वर नाथ को आवाज लगानी शुरू कर दी। कहते हैं यह आवाज जिस किसी के कान में पड़ती थी वह व्यक्ति सीधे प्रात: तक यमलोक पहुंच चुका होता था।

वर्तमान मंदिर के निर्माण में ही एक अद्भुत घटना हुई कहते है कि, महामाया की प्रेरणा से प्रयाग में होने वाले कुम्भ मेले में से नागा पंत के महात्मा जंगम बाबा जिन्हें स्वप्न में कई बार इस शक्ति पीठ के दर्शन होते थे। वे रूद्रदन्त पंत के साथ यहां आकर भगवती के लिये मंदिर निर्माण का कार्य शुरू किया। परन्तु उनके आगे समस्या आन पडी मंदिर निर्माण के लिये पत्थरों की। इसी चिंता में एक रात्रि वे अपने शिष्यों के साथ अपनी धुनी के पास बैठकर विचार कर रहे थे। कोई रास्ता नजर न आने पर थके व निढाल बाबा सोचते-सोचते शिष्यों सहित गहरी निद्रा में सो गये तथा स्वप्न में उन्हें महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती रूपी तीन कन्याओं के दर्शन हुये उन्होंने दिव्य मुस्कान के साथ बाबा को स्वप्न में ही अपने साथ उस स्थान पर ले गयी जहां पत्थरों का खजाना था।

यह स्थान महाकाली मंदिर के निकट देवदार वृक्षों के बीच घना वन था। इस स्वप्न को देखते ही बाबा की नींद भंग हुई उन्होंने सभी शिष्यों को जगाया स्वप्न का वर्णन कर रातों-रात चीड की लकड़ी की मशालें तैयार की तथा पूरा शिष्य समुदाय उस स्थान की ओर चल पड़ा जिसे बाबा ने स्वप्न में देखा था। वहां पहुंचकर रात्रि में ही खुदाई का कार्य आरम्भ किया गया थोडी ही खुदान के पश्चात संगमरमर से भी बेहतर पत्थरों की खान निकल आयी।

कहते हैं कि पूरा मंदिर, भोग भवन, शिवमंदिर, धर्मशाला एवं मंदिर परिसर का व प्रवेश द्वारों का निर्माण होने के बाद पत्थर की खान स्वत: ही समाप्त हो गयी। आश्चर्य की बात तो यह है इस खान में नौ फिट से भी लम्बे तरासे हुए पत्थर मिले। कितना आलौकिक चमत्कार था यह माता काली का जिस चमत्कार ने सहजता के साथ इस समस्या का निदान करवा दिया। महान योगी जंगम बाबा ने एक सौ बीस वर्ष की आयु में शरीर का त्याग किया।

माँ महाकाली के के शयन मंदिर होने के साथ साथ माँ महाकाली के संदर्भ में एक प्रसिद्व जनश्रुति है कि, माँ कालिका का जब रात में डोला चलता है तो इस डोले के साथ कालिका के गण आंण व बांण की सेना भी चलती हैं। कहा जाता है यदि कोई व्यक्ति इस डोले को छू ले तो दिव्य वरदान का भागी बनता है। हाट गांव के चौधिरयों द्वारा महाकालिका को चढायी गयी 22 नाली खेत में माता का यह डोला चलने की बात कही जाती है।

उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध कवि पंडित लोकरत्न गुमानी ने भी महाकालिका मंदिर के प्रति अपनी कविताओं को समर्पित करते हुये मां भगवती को सुंदरता व शालीनता की मूर्ति माना है। अपने "कालिकाष्टक" में पंडित गुमानी जी ने यह भी कहा है कि, यह विशेष परिस्थितियों में गंभीर व भयानक रूप धरण करती है। 

श्री महाकाली का यह मंदिर उत्तराखण्ड के लोगों की आस्था का प्रतीक है। प्रात:काल मंदिर में जब महाकाली की गूंज, शंख, रूदन और नगाडों की रहस्यमयी आवाजें निकलती हैं, तत्पश्चात यहां पर भक्तजनों का ताता लगना शुरू होता है। सायंकालीन आरती का दृश्य भी अत्यधिक मन मोहक रहता है।


उत्तराखण्ड के लोगों की आस्था का केन्द्र महाकाली मंदिर अनेक रहस्यमयी कथाओं को अपने आप में समेटे हुये है। पवित्र पहाड़ों की गोद में बसा हरे भरे वृक्षों के मध्य स्थित यह मंदिर भक्तजनों के लिये जगत माता की ओर से अनुपम भेंट है।

माना जाता है कि, जो भी भक्तजन श्रद्वापूर्वक महाकाली के चरणों में आराधना के श्रद्धापुष्प अर्पित करता है उसके रोग, शोक, दरिद्रता एवं महान विपदाओं का हरण हो जाता है व अतुल ऐश्वर्य एवं सम्पत्ति की प्राप्ति होती है।

भक्तजन बताते हैं यहां श्रद्धा एवं विनयता से की गयी पूजा का विशेष महात्म्य है। इसलिये वर्ष भर यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं तथा बड़े ही भक्ति भाव से बताते हैं कि "किस प्रकार माता महाकालिका ने उनकी मनौती पूर्ण की देशी विदेशी पर्यटक इस क्षेत्र में आकर मां काली के दर्शन करते है|"

विशेष रूप से नवरात्रियों व चैत्र मास की अष्टमी को महाकाली भक्तों का यहां पर विशाल तांता लगा रहता है। इन पर्वों को उत्तराखण्ड सहित देश के अनेक भागों के भक्तजन यहां महाकाली के दर्शनार्थ आते हैं, ये ही ऐसे पर्व हैं जब क्षेत्र के प्रत्येक गांव से कामकाजी महिलाओं को अपने नन्हें-मुन्नें बच्चों के साथ गंगोलीहाट बाजार जिन्हें ग्रामीण महिलायें हाट कौतिक के नाम से पुकारती हैं, आने का अवसर मिलता है और वे सर्वप्रथम कालिका के दरबार में माथा टेककर चरणामृत लेकर, बाजार परिसर व हाट से खरीददारी करती हैं। मंदिर परिसर में भजन-कीर्तन व भण्डारा के लिये भवन बने हुये हैं।

महामाया भगवती के दरबार में सहस्त्र चण्डी यज्ञ, सहस्रघट पूजा, शतचंडी महायज्ञ, अष्टबलि अठवार का पूजन समय-समय पर आयोजित होता है। यही एक ऐसा दरबार है। जहां अमावस्या हो चाहे पूर्णिमा सब दिन हवन यज्ञ आयोजित होते हैं।

ब्राह्मण वर्ण बलि प्रथा से दूर रहकर हवन पूजा में विश्वास रखता है। जब मंदिर में सतचण्डी महायज्ञ 108 ब्राह्मणों द्वारा प्रतिदिन शक्ति पाठ आयोजित होते हैं तब माँ कालिका दरबार की आभा अविस्मर्णीय होती है।

चातुरमास में आयोजित होने वाला खीरभोग रावल उपजाति के वारीदारों द्वारा लगाया जाता है। इस अवसर पर मंदिर में अर्धरात्रि में भी भोग लगाने की प्रथा है। यह भोग चैत्र और अश्विन मास की महाष्टमी को पिपलेत गांव के पंत उपजाति के ब्राह्मणों द्वारा लगाया जाता है।


यहां धनहीन धन की इच्छा से, पुत्रहीन पुत्र की इच्छा से, सम्पत्तिहीन सम्पत्ति की इच्छा से सांसारिक मायाजाल से विरक्त लोग मुक्ति की इच्छा से पधारते हैं व मनोकामना पूर्ण पाते हैं।

महाआरती के बाद शक्ति के पास महाकाली का विस्तर लगाया जाता है और प्रात: काल विस्तर यह दर्शाता है कि मानों यहां साक्षात् कालिका विश्राम करके गयी हों क्योंकि विस्तर में सलवटें पड़ी रहती हैं। कुछ बुर्जग बताते हैं पशु बलि महाकाली को नहीं दी जाती है। क्योंकि जगतमाता अपने पुत्रों का बलिदान नही लेती है। यह बलि कालिका के खास गण करतु को प्रदान की जाती है। तामानौली के औघड बाबा भी कालिका के अन्यश् भक्त रहे हैं। मां काली के प्रति उनके तमाम किस्से आज भी क्षेत्र में सुने जाते है भगवती महाकाली का यह दरबार असंख्य चमत्कार व किवदन्तियों से भरा पड़ा है|

माँ कलिंका भारतीय फोज की कुमाऊ की इष्टदेवी भी है कहते है कि, कुमाऊ रेजीमेंट का हाट कालिका से जुड़ाव द्वतीय विश्वयुद्ध (1939 से 1945) के दौरान हुआ। कहा जाता है कि. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बंगाल की खाड़ी में भारतीय सेना का जहाज डूबने लगा। तब सैन्य अधिकारियों ने जहाज में सवार सैनिकों से अपने-अपने ईष्ट की आराधना करने को कहा। 
                                    


कुमाऊ रेजीमेंट का हाट कालिका से जुड़ाव द्वतीय विश्वयुद्ध (1939 से 1945) के दौरान हुआ। कहा जाता है कि. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बंगाल की खाड़ी में भारतीय सेना का जहाज डूबने लगा। तब सैन्य अधिकारियों ने जहाज में सवार सैनिकों से अपने-अपने ईष्ट की आराधना करने को कहा। 

कुमाऊ के सैनिकों ने जैसे ही हाट काली का जयकारा लगाया तो जहाज किनारे लग गया। इस वाकये के बाद कुमाऊ रेजीमेंट ने मां काली को अपनी आराध्य देवी की मान्यता दे दी। जब भी कुमाऊ रेजीमेंट के जवान युद्ध के लिए रवाना होते हैं तो कालिका माता की जै के नारों के साथ आगे बढ़ते हैं। 

1971 की लड़ाई में हमारे देश की सेना ने पाकिस्तान के दांत खट्टे किए थे। 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना के एक लाख जवानों ने भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण किया था। इस दिन को विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है। 

भारतीय सेना की विजयगाथा में हाट कालिका के नाम से विख्यात गंगोलीहाट के महाकाली मंदिर का भी गहरा नाता रहा है। 1971 की लड़ाई समाप्त होने के बाद कुमाऊ रेजीमेंट ने हाट कालिका के मंदिर में महाकाली की मूर्ति चढ़ाई थी। यह मंदिर में स्थापित पहली मूर्ति थी। 

बता दें कि हाट कालिका के मंदिर में शक्ति पूजा का विधान है। सेना द्वारा स्थापित यह मूर्ति मंदिर की पहली मूर्ति थी। इसके बाद 1994 में कुमाऊं रेजीमेंट ने ही मंदिर में महाकाली की बड़ी मूर्ति चढ़ाई। इन मूर्तियों को आज भी शक्तिस्थल के पास देखा जा सकता है। कुमाऊं रेजीमेंटल सेंटर रानीखेत के साथ ही रेजीमेंट की बटालियनों में हाट कालिका के मंदिर स्थापित हैं। हाट कालिका की पूजा के लिए सालभर सैन्य अफसरों और जवानों का तांता लगा रहता है। 1971 की भारत-पाक लड़ाई में हिस्सेदार रहे पांखू निवासी रिटायर्ड कैप्टन धन सिंह रावत बताते हैं कि महाकाली का जयकारा लगते ही जवानों में दोगुना जोश भर जाता था।

पोस्ट सोजन्य - दौनिक उत्तराखंड व मित्रगण

Comments

Surjeet said…
यह लेख अद्वितीय और विचारशील है। मेरा यह लेख भी पढ़ें जागेश्वर मंदिर उत्तराखंड

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