उत्तराखंड गौरव-जसवंत सिंह रावत एक अमर योद्धा

देवताओं, ऋषियों, प्राचीन मंदिरों, प्राकृतिक सुन्दरता तथा गंगा-यमुना के जन्मस्थल के रूप में विश्वविख्यात उत्तराखंड वीरो की भूमि भी है| इस धरती ने ऐसे असंख्य वीरो को जन्म दिया है जिनके सुरवीरता की प्रशंशा मित्रो ने ही नही शत्रु ने भी की है| एक ऐसे ही परमवीर का नाम है जसवंत सिंह रावत.......


19 अगस्त 1941 को उत्तराखंड के पोड़ी गढ़वाल के बरयुन (Baryun) गावं में गुमान सिंह के घर में जन्मे एक बालक ने आगे चल कर वीरता का ऐसा इतिहास लिखा जिसकी पुनावर्ती संभव नही| वीर सैनिको कि बाट जब भी आती है तो मात्र उत्तराखंड ही नही हर भारतवासी बड़ी श्रृद्धा से जसवंत सिंह का नाम लेता है| कहने को तो 17 नवम्बर 1962 को भारत-चीन युद्ध में अदम्य साहस दिखाते हुए जसवंत सिंह रावत ने 22 वर्ष की आयु में शरीर छोड़ दिया लेकिन रावत जी की आत्मा आज भी एक सजग प्रहरी के रूप में भारत की सीमा की रक्षा कर रही है| सेना आज भी रावत जी के आगे स्वर्गीय नही लिखती|
बायीं और दुसरे नंबर पर जसवंत सिंह रावत


रायफलमेन जसवंत सिंह रावत सेना में आज भी कार्यरत है और अब वो मेजर जरनल रैंक के अधिकारी बन चुके है| आज भी पांच सैनिक अपने मेजर रावत के लिए सुबह 4:30 की चाय, 9 बजे नाश्ता और शाम को खाना देते है| हर रोज मेजर जरनल रावत की वर्दी धुलाई और प्रेस करके रखी जाती है जूते पोलिश किए जाते है और फिर मेजर जरनल रावत रात्रि गस्त को निकलते है जिसके निशान के रूप में सुबह कपड़ो में सलवटे तथा जूतों में मट्टी लगी होती है|


रावत जी को एक सैन्यकर्मी की भांति अवकाश भी मिलाता है इसके लिए रावत जी के देहरादून में रहने वाले परिजन आवश्यकतानुसार अवकाश के लिए पत्र लिखते है जो स्वीकृत होने पर सेना के जवान रावत जी के चित्र को और आवश्यक सामान को लेकर उनके घर तक छोड़ने आते है और अवकाश समाप्त होने पर उन्हें एक सेन्य अधिकारी के तरह लेने भी आते है|


वर्ष 1962 में चीन ने हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नारे के साथ ही भारत में हमला कर दिया था| रायफलमेन के रूप में रावत इस समय अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले की नुरानांग पोस्ट में थे| अरुणाचल को अपने कब्जे में लेने के लिए लिए चीन लगातार हमले कर रहा था| पहले और दुसरे हमले में नाकाम रहें चीन ने अपने तीसरे हमलें में तवांग स्थित बोद्ध की मूर्ति का हाथ काट कर अपने साथ ले गयी|

अगली सुबह चीन ने अपना चोथा और अब तक का सबसे बड़ा हमला किया लेकिन इस हमले के मध्य 4 गढ़वाल रायफल के रायफलमैन जसवंत सिंह रावत, रायफलमैन गोपाल सिंह गुसाई और लांसनायक त्रिलोक सिंह नेगी एक अभेद्य दीवार की भांति खड़े हो गए|


भारतीय सेना के अधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार -

चीनी सेना की एक मीडियम मशीनगन (MMG) ने भारतीय सेना के जवानो पर आग उगलना जारी किया तो भारतीय सेनिको को अपने लिए एक सुरक्षित ढाल में छिपना पड़ा और आगे बड़ते कदम रुक गए| चीन की इस MMG को काबू करने में अपने प्राणों की परवाह ना करते हुए 4 गढ़वाल रायफल के यह तीनो सुरवीर आगे बड़े, इनके सफल-असफल होने से युद्ध की परिणाम पूरी तरह से बदल जाते|

जसवंत सिंह, गोपाल और त्रिलोक सिंह के साथ बड़ी सावधानी से झाड़ियों में छुपते-छुपते चीनी मशीनगन के बंकर तक पहुच गए इसके बाद जसवंत जी और गोपाल जी ने त्रिलोक जी को कवरिंग फायर दिया और मात्र 15 यार्ड की दुरी से त्रिलोक जी ने एक ग्रिनेड फैंक कर चीनी सेना के बंकर को पूरी तरह से नष्ट कर दिया और MMG को घसीट कर अपनी चोकी की और बड़ने लगे| चीनी सेना द्धारा की गयी जबावी फायरिंग में जसवंत जी और त्रिलोक जी ने अपना बलिदान दे दिया लेकिन गंभीर रूप से घायल गोपाल सिंह MMG को अपनी चौकी में लेकर आ गए|

इसके बाद हुए आमने-सामने के युद्ध में 300 चीनी सेनिक मरे गए तथा भारत के 2 सैनिक बलिदान हुए और 8 गंभीर रूप से घायल हुए|

1962 में 4 गढ़वाल रायफल्स को "युद्ध सम्मान नूरानंग" दिया गया| चीन-भारत युद्ध में सेना कि किसी भी अंग को मिलाने वाला यह सबसे बड़ा एकमात्र सम्मान था|

जसवंत सिंह रावत जी की वीरता के बारे में अरुणाचल के तवांग में एक अन्य कहानी कही जाती है| 


स्थानीय निवासियों में कहते है कि 17 नबम्बर 1962 को जब चीन ने भारत के तवांग में आक्रमण किया तो 4 गढ़वाल रायफल के सभी जवान मारे गए लेकिन 11 हजार फुट कि उचाई पर स्थित चोकी पर जसवंत सिंह रावत एकमात्र सेनिक बचे थे| जसवंत सिंह रावत तथा पास के गाँव की मोनपा समुदाय कि दो लड़कियों नुरा और सेला ने चीनी सेनिको से मोर्चा लिया| नुरा और सेला मिटटी के बर्तन बनाने का कम करती थी|


जसवंत सिंह ने अलग-अलग जगह हथियार रख दिए और नुरा तथा सेला को मैगजीन में गोली भरने को दे दी|
रावत जी ने चीन की सेना पर बड़ी फुर्ती के साथ हमला किया वो एक कोने से दुसरे कोने पर भागकर जाते और फायरिंग करते बीच में नुरा और सेला को खाली मैगजीन देकर भरी हुई मैगजीन से चीनी सेनिको पर हमला कर देते| इस तरह रावत जी ने लगभग 300 चीनी सेनिको को मौत के घाट उतार दिया|


चीनी सेना रावत जी के इस हमले से डर गयी थी| लेकिन भारतीय सेना को राशन पहुचने वाले ने चीनी सेना को चोकी में मात्र एक भारतीय सेनिक के होने की बात बता दी जिस्सके बाद चीनी सेना ने बंकर पर ग्रिनेड से हमला किया जिसमें सेला के प्राण चले गए और नुरा को बंदी बना लिया गया जसवंत सिंह जी ने अपनी बन्दुक में बची अंतिम गोली से अपने प्राणों का बलिदान कर दिया|

चीनी सेना के कमांडर ने क्रोधित होकर रावत जी का शीश काट लिया और अपने साथ चीनी सीमा पर ले गया लेकिन युद्ध सम्माप्त होने के बाद उसने रावत जी के शीश को लौटा दिया और साथ में रावत जी की एक मूर्ति देते हुए रावत जी की वीरता के प्रति श्रद्धा व्यक्त की| यह मूर्ति आज भी उनके स्मारक में लगी है|

तवांग के लोग आज जसवंत सिंह रावत जी को संत और भगवान् मानते है और उन्हें विश्वास है कि रावत जी आज भी सीमा की रक्षा करते है|

जसवंत सिंह रावत जी ने जहाँ चीन से युद्ध किया था वहां आज एक बड़ा स्मारक बना हुआ है यहाँ से जाने वाले सभी लोग या गाड़िया यहाँ रूककर रावत जी को नमन करके ही आगे बड़ते है| सेना के बड़े अधिकारी भी रावत जी को नमन किए बिना यहाँ से आगे नही जाते यह उनके प्रति निष्ठां ही है जो आज सेना का एक जवान और बड़े अधिकारी उनके स्मारक के सामने नतमतक होते है|


युद्ध के उपरांत 4 गढ़वाल को महावीर चक्र तथा जसवंत सिंह रावत, गोपाल सिंह गुसाई, त्रिलोक सिंह नेगी को वीर चक्र से सम्मानित किया गया|

जय बद्रीविशाल लाल की 


                                                                                                                                                                                                        

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