उत्तराखण्ड के संगीत ने स्टीफन को बनाया फ्योंलीदास
कहते है संगीत का रिश्ता अनुभूति और ह्रदय से होता है
सुख-दुःख में संगीत का कोई ना कोई राग अवश्य होता है| कई राष्ट्रीयता में बंट चुकी
धरती पर संगीत ने आज भी वैश्विक एकता का परिचय दिया है वरना सात समुद्र पार का एक
नागरिक भारत में देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखण्ड में पर्यटन कर लौट जाता यदि वो
गढ़वाल का संगीत ना सुनाता|
अमेरिका के प्रसिद्ध विश्वविधालयों में से एक सिनसिनाटी
विश्वविद्यालय के प्रो स्टीफन सियोल को उत्तराखण्ड के संगीत ने गढ़वाल कि भूमि पर
रुकने तथा उसे सिखने को उत्साहित कर दिया| और यहीं से प्रो. स्टीफन की फ्योलीदास
के रूप में यात्रा आरंभ हुई|
उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध वाद्य यंत्रो में प्रमुख ढोल-दमाऊ
को सीखकर उसमे महारत हासिल कर चुके स्टीफन कई गढ़वाली कार्यक्रमो में दर्शको को
अनादित कर चुके है, अभी हाल में ही चमोली जिले की भिलंगना घाटी में
आयोजित पांडव नृत्य में उनक ढोल की गूंज सुनाई दी|
स्टीफन के भागीरथी प्रयासों से उत्तराखण्ड के वाद्य यंत्र
ढोल की गूंज ने अमेरिका में भी दर्शको को अभिभूत किया| उत्तराखण्ड कि संस्कृति का
अभिन्न अंग ढोल-दुमाऊ आज उत्तराखण्ड ही नही अमेरिका जैसे देशो में भी प्रसिद्धी पा
रहा है|
ढोल-दुमाऊ या ढोल सागर को सीखने में स्टीफन की सहायता लोक
कला एंव संस्कृति निष्पादन केंद्र, श्रीनगर गढवाल विश्वविद्यालय के निदेशक ड्रा दाताराम
पुरोहित नें की| ड्रा पुरोहित ने स्टीफन के शोध में उनका मार्गदर्शन किया। डा़
दाताराम पुरोहित ने स्टीफन को टिहरी गढ़वाल के प्रसिद्ध ढोल वादक सोहनलाल से करायी।
वर्ष 2009 में प्रोफेसर स्टीफान ढोल
सागर पर शोध करने सोहनलाल के घर पहुंचे जहां वे ढोलसागर के विद्वान सोहनलाल के
शिष्य बने। तीन माह इनके साथ बिताने के बाद वे इतने प्रभावित हुए कि स्टीफन ने अपना
नाम बदलकर फ्योंलीदास रख लिया। अमेरिका लौटने के बाद उन्होंने विश्वविद्यालय में
ढोल को पाठ्यक्रम में शामिल करने की पैरवी की। अंतत: उनका प्रयास रंग लाया और ढोलसागर को सिनसिनाटी विश्वविद्यालय में पढाया जा रहा है| आज
प्रोफ़ेसर स्टीफन के कई शिष्य ढोल सागर विद्या को सीख रहें है तथा बहुत से सीखकर इस
विद्या को आगे बढाने में अपनी भूमिका निभा रहें है|
स्टीफन ने अपने गुरु सोहनलाल को सिनसिनाटी में ढोल सिखाने
के लिए विजिटिंग प्रोफ़ेसर के तौर पर अमेरिका आमंत्रित किया। कठिनता से छठी क्लास
पढ़े हुए सोहन लाल के लिए यह गौरव की बात थी। लेकिन उत्तराखंड और भारत के लिए भी
गर्व का विषय था क्योंकि उत्तराखंड के ढोल की तालो से अमेरिका भी गूंज उठा था।
फ्योंलीदास वर्तमान में गढ़वाल विश्वविद्यालय के अंग्रेजी
विभाग में विजिटिंग प्रोफेसर भी हैं। गढ़वाल जागर सम्राट प्रीतम भरत्वाण से वे खासे
प्रभावित है। स्टीफन ने अमेरिका मे प्रीतम भरत्वाण के साथ कई मंचों पर ढोल वादन भी
किया और जागर भी गाये।
फ्योंलीदास यहाँ की लोकसंस्कृति में इतना रम गये हैं कि
गढवाली भाषा के साथ साथ जागर ऐसे गाते हैं कि पता ही नहीं चलता की उनकी मातृभाषा
गढ़वाली नही हैं।
स्टीफन एक वर्ष तक यहीं रहेंगे व विश्व सांस्कृतिक विरासत
रम्माण, जीतू
बगडवाल, माधो
सिंह भंडारी की लोकगाथाओं से लेकर लोकविरासत, लोकगीत, लोकनृत्य व ढोल सागर के
बारे में बारीकी सीखेंगे जिसके बाद वापस अमेरिका जाकर लोगो को ढोल सागर की शिक्षा
देंगे।
स्मरण रहें है कि जागर और ताल के संग्रह ढोलसागर को वर्ष 1932 में पौड़ी निवासी ब्रह्मानंद
थपलियाल ने तैयार किया था।
स्टीफन ने समाचार पत्र अमर उजाला से
बाट करते समय बाताया कि, वर्ष 1930 में उनके दादा अपने चार बेटों को पढ़ाने मसूरी आए थे। बाद में उनके
पिता अमेरिका में बस गए, लेकिन स्टीफन के मन उत्तराखंड बस हुआ था। वह वर्ष 1999 में उत्तराखंड के साधु संतों से
मिले। बाद में उन्होंने ढोल, दमाऊ और डौंर आदि वाद्ययंत्रों पर शोध शुरू किया। अब अमेरिका में
उनके कई शिष्य ढोल दमाऊं बजाने में निपुण हो गए हैं। प्रो. ने बताया कि उत्तराखंड
मे शोध के दौरान उन्हें जो अनुभव मिले, उसको वह किताब का रुप देना चाहते
हैं।
वास्तव मे जिस तरह से पश्चिमी देशों के लोगों का भारतीय
लोकसंस्कृति के प्रति लगाव और आकर्षण बढ रहा है वो तो सुखद हैं लेकिन दूसरी ओर
हमारी युवा पीढ़ी अपनी लोकसंस्कृति से दूर होती जा रही है जो कि दुखद है। हमें
चाहिए कि अपनी लोकसंस्कृति की जड़ों को मजबूत करें और प्रोफेसर फ्योंलीदास से सीख
लें।
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